एनडीए ने दलित की पार्टी समझकर 5 सांसदों के टिकट काट दिए: Pashupati Paras

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Pashupati Paras: लोकसभा चुनाव 2024 को लेकर राजनीति गरमा रही है, और इसी बीच राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी (रालोजपा) के प्रमुख पशुपति कुमार पारस का बड़ा बयान सुर्खियों में है।

उन्होंने आरोप लगाया है कि एनडीए ने उनकी पार्टी को दलित की पार्टी समझकर उनके पांचों सांसदों के टिकट काट दिए। पारस के इस बयान ने न केवल राजनीतिक गलियारों में हलचल मचा दी है, बल्कि यह सवाल भी खड़ा कर दिया है कि क्या दलित राजनीति को हाशिए पर धकेला जा रहा है।

Pashupati Paras का बयान और उसकी पृष्ठभूमि

पशुपति पारस ने अपने बयान में कहा कि उनकी पार्टी ने हमेशा दलितों और पिछड़ों के हितों की लड़ाई लड़ी है। उन्होंने आरोप लगाया कि एनडीए ने उनकी पार्टी को एक “विशेष वर्ग की पार्टी” समझकर उन्हें राजनीतिक रूप से कमजोर करने की साजिश की है। पारस ने यह भी कहा कि उनकी पार्टी ने हमेशा एनडीए के साथ मजबूती से खड़े होकर काम किया है, लेकिन चुनाव के समय उनकी उपेक्षा की गई।

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दलित राजनीति पर सवाल

पारस के इस बयान ने भारतीय राजनीति में दलित समुदाय की स्थिति को एक बार फिर चर्चा के केंद्र में ला दिया है। भारतीय राजनीति में दलित वोट बैंक को हमेशा महत्वपूर्ण माना गया है, लेकिन क्या केवल चुनावी रणनीति के लिए दलित नेताओं और दलित पार्टियों का उपयोग किया जा रहा है? पारस का बयान इसी ओर इशारा करता है। उन्होंने एनडीए पर सवाल उठाते हुए कहा कि अगर दलितों की पार्टी समझकर टिकट काटा गया, तो यह दलित समाज का अपमान है।

एनडीए की रणनीति

एनडीए, जिसमें बीजेपी प्रमुख घटक दल है, ने हमेशा “सबका साथ, सबका विकास” का नारा दिया है। लेकिन अगर पारस के आरोप सही हैं, तो यह एनडीए की समावेशी राजनीति पर सवाल उठाता है। पांच सांसदों के टिकट काटने का निर्णय क्या दलित समुदाय को दरकिनार करने का संकेत है, या यह केवल राजनीतिक समीकरणों का हिस्सा है? यह प्रश्न अब गहराता जा रहा है।

Pashupati Paras: रालोजपा की स्थिति

रालोजपा, जो बिहार और अन्य क्षेत्रों में दलित समुदाय का एक बड़ा प्रतिनिधित्व करती है, इस समय राजनीतिक असमंजस में है। पारस के नेतृत्व में पार्टी ने एनडीए के साथ रहकर कई मुद्दों पर समर्थन दिया, लेकिन अब जब चुनाव नजदीक हैं, पार्टी खुद को हाशिए पर महसूस कर रही है। पारस ने कहा है कि उनकी पार्टी दलित समाज के हितों के लिए लड़ाई जारी रखेगी, चाहे उन्हें एनडीए में सम्मान मिले या नहीं।

दलितों की राजनीति का भविष्य

पारस के इस बयान से यह स्पष्ट होता है कि दलित राजनीति को अब नए सिरे से परिभाषित करने की जरूरत है। केवल चुनावी समीकरणों के लिए दलित समुदाय का उपयोग करना अब संभव नहीं होगा। दलित नेताओं और दलित पार्टियों को अपनी सशक्त पहचान बनानी होगी, ताकि वे राजनीतिक दलों के एजेंडे में सिर्फ आंकड़ों तक सीमित न रहें।

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