पटना— बिहार की राजनीति में Prashant Kishor (PK) की पार्टी जन सुराज अब खुलकर जातीय समीकरण साधने में जुटती दिख रही है।
सामाजिक न्याय और सर्वसमाज की बात करने वाले पीके ने अब रणनीतिक रूप से सोशल इंजीनियरिंग की ओर रुख किया है — ठीक वैसा ही जैसा 1990 के दशक में मंडल युग की राजनीति में देखा गया था।
RCP सिंह का विलय और पप्पू सिंह की ताजपोशी
बीते रविवार को पूर्व केंद्रीय मंत्री आरसीपी सिंह ने अपनी पार्टी ‘आप सबकी आवाज’ (आसा) का जन सुराज में विलय कर दिया। इसके तुरंत बाद पार्टी ने पूर्व सांसद पप्पू सिंह को राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया। गौरतलब है कि पप्पू सिंह राजपूत समुदाय से आते हैं जबकि आरसीपी सिंह कुर्मी जाति का प्रतिनिधित्व करते हैं।
Prashant Kishor news: ब्राह्मण, दलित और मुस्लिम – संतुलन साधने की कोशिश
पीके स्वयं ब्राह्मण समुदाय से हैं, जबकि उन्होंने पिछले साल मनोज भारती को प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष बनाया था, जो दलित समुदाय से आते हैं और पूर्व राजनयिक रह चुके हैं। इसके अलावा पार्टी में मुस्लिम समुदाय से अशफाक अहमद जैसे नेताओं को शामिल कर यह संकेत दिया गया कि पार्टी सर्वसमाज को साथ लेकर चलना चाहती है।
Prashant Kishor News: 125 सदस्यों की कार्यकारिणी में जातीय गणित
पार्टी की 125 सदस्यों वाली राष्ट्रीय कार्यकारिणी में जातीय संतुलन साफ देखा जा सकता है:
- अति पिछड़ा वर्ग (EBC): 25
- पिछड़ा वर्ग (OBC): 27
- सामान्य वर्ग: 23
- दलित: 20
- अल्पसंख्यक: 25
- अनुसूचित जनजाति: 3
- महिलाएं: 20
- यादव समुदाय: 12
लालू के ‘M-Y समीकरण’ पर पीके की नजर
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि पीके की सोशल इंजीनियरिंग लालू यादव के ‘माय’ (मुस्लिम-यादव) समीकरण में सेंध लगाने की कोशिश है। यादवों को 12 और मुस्लिमों को 25 लोगों के माध्यम से प्रतिनिधित्व देकर पीके यह संकेत देना चाहते हैं कि उनकी पार्टी परंपरागत वोट बैंक से इतर एक नई समावेशी धारा तैयार कर रही है।
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क्या बदली है Prashant Kishor की रणनीति?
हालांकि पीके अक्सर जातिगत राजनीति के विरुद्ध बोलते रहे हैं, लेकिन पिछले उपचुनावों में अपेक्षित सफलता नहीं मिलने के बाद उनकी रणनीति में व्यावहारिक बदलाव देखने को मिल रहा है। जन सुराज अब धीरे-धीरे “समाज के हर वर्ग को प्रतिनिधित्व देने” की नीति से “जातीय प्रतिनिधित्व के जरिए सामाजिक पकड़ बढ़ाने” की दिशा में बढ़ रही है।
राजनीतिक विश्लेषण: अवसरवाद या व्यावहारिक राजनीति?
राजनीति के जानकारों के अनुसार, बिहार जैसे राज्य में जहां राजनीति और जाति गहराई से जुड़ी हुई हैं, वहाँ सामाजिक इंजीनियरिंग के बिना राजनीतिक जमीन तैयार करना बेहद मुश्किल है। ऐसे में पीके की रणनीति को एक तरफ व्यावहारिक कदम माना जा रहा है, वहीं दूसरी ओर यह भी सवाल उठ रहा है कि क्या यह पीके के “जातिवाद विरोधी नैरेटिव” से समझौता है?